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Wednesday 26 December 2012

क्या भारत में लोकतंत्र...!!!


राजधानी दिल्ली में चलती बस में २३ वर्ष की छात्रा के साथ हुए गैंगरेप ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है| इस घटना ने पुलिस के साथ साथ सरकार को सवालिया कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है| सरकार और पुलिस की लचर व्यवस्था के प्रति लोगों का आक्रोश हर शहर की सड़कों पर था| प्रदर्शन और आन्दोलन करने पर हर आम आदमी मज़बूर हो गया है| सरकार ने पिछले १० साल में देश के विकास और भविष्य को ताक पर रखकर घोटाले और सिर्फ घोटाले ही किए हैं| देश की आज़ादी को आज ६५ साल हो चुके हैं पर विकास के नाम पर देश आज भी १०० साल पीछे चल रहा है| अंग्रेजों ने जिस हालत और मोड़ पर भारत को छोड़ा था, हम भारत को वहाँ से आगे ले जाने की बज़ाय पीछे धकेल दिया है|

आज़ादी के बाद से देश में जब भी कभी कोई अप्रिय घटना घटित हुई है, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से हमेशा पीड़ितों को मुआवज़ा देने की पहल ही की गई है परन्तु इस बार पीड़ित और देश ने सरकार से मुआवज़े की बज़ाय इंसाफ़ माँगा और बहुत हद तक सरकार को इंसाफ़ देने पर मज़बूर भी कर दिया है| अब जनता इंसाफ पाने के लिए सड़कों पर आ गई है, उसे न तो ठंड का एहसास है, न अगुवाई के लिए किसी नेता की ज़रूरत है| अब आम जनता अपने हक़ के लिए सीधे सीधे सरकार से भिड़ने लगी है| जिससे देश की राजनीति अंदर तक हिल गई है| सरकार के साथ साथ विपक्ष की पेशानी पर भी बल पड़ने लगे हैं, क्योंकि जनता अब विपक्ष की भूमिका भी तय करने लगी है|

सरकार की लाख दमनकारी नीति के बावज़ूद इण्डिया गेट, रायसीना हिल और विजय चौक पर हुए जनआंदोलनों और विरोध प्रदर्शन से यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि आम जनता अब पहले से ज़्यादा सजग और विवेकी हो गई है| वह १९४७ की तरह अंधी-बहरी-गूंगी नहीं है, जिसपर कोई भी सरकार अपना हक़ आसानी से बना लेगी, जब मन करेगा शोषण करेगी और जनता मौन स्वीकृति दे देगी| कोई भी नीति-समझौता जबरदस्ती मत्थे मढ देगी| सरकार और उसके नेताओं को बाखूबी समझ में आ जाना चाहिए कि समय बदल गया है, जनता बदल गई है|

अब आम जनता अपना हित-अहित देखने लगी है| आँख बंद करके किसी राजनीतिक पार्टी या राजनेता पर यकीन नहीं करने वाली| सरकार की सख्ती के बावज़ूद जनता जिस प्रकार से उग्र हुई है, उससे सरकार के भविष्य और सेहत पर बहुत बड़ा संकट मंडरा रहा है| जनआन्दोलनों का सरकार जिस प्रकार तानाशाही रवैया अख्तियार करके निर्ममतापूर्वक दमन कर रही है उससे उसकी दूरदर्शिता नहीं बल्कि सत्ता लोलुपता की छवि नज़र आ रही है| जिसका भुगतान निश्चित ही उसे अगले लोकसभा चुनावों में करना पड़ेगा|

और अगर विपक्ष बहुत खुश हो रहा है कि जनता मौजूदा सरकार का पुरजोर विरोध कर रही है तो अगला चुनाव उसके लिए आसान होगा तो वह बहुत बड़े भुलावे में जी रही है| हालिया जनआंदोलनों ने जनता के बीच अपनी साख और घुसपैठ बनाने का विपक्ष को एक सुनहरा मौका दिया था, परन्तु विपक्ष लगातार नाकाम और निष्क्रीय रहा है| विपक्ष से जनता को काफ़ी उम्मीदें थी पर विपक्ष हाथ-पैर हिलाना तो दूर, मुँह से भी कुछ नहीं बोला| यदि विपक्ष की यही हालत रही तो अगले चुनाव में विपक्ष को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने वाला और खुदा-ना-खास्ता अगर विपक्ष सत्ता पर काबिज़ होगा तो बैसाखियाँ ज़रूर लगेगीं, जो उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द होगा| साथ ही अपनी निष्क्रियता पर उसे भी इसी प्रकार का जनविरोध हर बार झेलना पड़ेगा| अगर विपक्ष गुजरात चुनावों के नतीजों के आधार पर अगली लोकसभा चुनाव का आंकलन कर रही है तो उससे बड़ा मुर्ख दूसरा कोई नहीं है क्योंकि मोदी गुजरात चुनाव किसी पार्टी के दम पर बल्कि अपनी साख और मेहनत पर जीते हैं| यह तो मोदी का बड़प्पन है कि उन्होंने जीत का सेहरा पार्टी के सिर बाँधा|
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में जनआंदोलनों का सत्तारूढ़ सरकार द्वारा इस प्रकार दमन करना अपने आप में निंदनीय एवं कष्टकारी है जबकि लोकतांत्रिक सरकारों को इन जनआंदोलनों का दमन करने की बजाय उसने सीख लेनी चाहिए| अपनी नीतियों पर एक बार फिर विचार करना चाहिए| जनता के विकास और भविष्य को सुनिश्चित करना चाहिए, जिससे अगले चुनाव में उनकी सत्ता बरक़रार रहे| परन्तु यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि हर बार सत्ताधारी सरकार यह भूल जाती है कि भारत में राजशाही नहीं नौकरशाही है| हर सरकार को हर पाँच साल बाद जनता के बीच आना ही होता है और अगली सरकार-कुर्सी के लिए उसे जनता पर ही निर्भर करना होता है| फिर भी सरकारें मनमानी करती हैं और अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारती हैं|


भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भारत में अनेक छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टी हैं पर कोई भी उसके और उसकी जनता के लिए काम नहीं करती हैं| हर नेता के लिए देश की राजनीति सिर्फ पैसा छापने की मशीन बन गई है| हर नेता जनता के खून-पसीने की कमाई को अपनी अय्याशी में उड़ा रहा है| और इससे बड़ा जनता का दुर्भाग्य यह है कि इतनी पार्टियाँ होने के बावज़ूद उसके पास कोई अच्छा सशक्त विकल्प नहीं है|

एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक सांसदों व विधायकों को मिलाकर 141 के खिलाफ हत्या के मामले दर्ज हैं। 352 जनप्रतिनिधियों के ऊपर हत्या के प्रयास का मुकदमा चल रहा है। 90 जनप्रतिनिधियों जिनमें सांसद व विधायक शामिल, के खिलाफ अपहरण के आरोप हैं।जबकि 75 डकैती के आरोप में नामज़द हैं।

यह रिपोर्ट लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ी करती है| देश की राजनीति में बहुत से लोग ऐसे हैं जिनको जेलों में होना चाहिए पर वो सत्ता में बैठकर देश को संचालित कर रहे हैं| ऐसे में न्यायपालिका और विधायका से निष्पक्षता की कतई उम्मीद नहीं की जा सकती| ऐसे में देश की स्वतंत्र इकाई चुनाव आयोग को चाहिए कि दोषियों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाए या फिर ईवीएम मशीन पर “रिजेक्ट” का बटन बनाए| जिससे लोकतंत्र प्रणाली का कुछ तो स्वरुप परिलक्षित हो|





Friday 14 December 2012

पैसा पैसा पैसा...



आजकल शादियों का मौसम चल रहा है| रोज़ ही किसी न किसी विवाह समारोह में जाना होता है| विवाह स्थल की भव्यता, सुंदरता और विशालता देखकर कोई नहीं कह सकता है कि मनमोहन सरकार ने मंहगाई को अपने चरम सीमा पर पहुँचा दिया है| भोजन में विविधताएं, वधू के परिधान और आभूषण देखकर तो बिल्कुल भी नहीं लगता कि आम आदमी मंहगाई की मार झेल रहा है| परन्तु इतनी भव्यता के पीछे कहीं न कहीं कन्या के अभिभावक पर लड़के वालों का अच्छा-ख़ासा दबाव भी होता है| कुछ परिवार इतनी भव्यता पर पैसे खर्च करने में सक्षम होते हैं परन्तु अधिकतर परिवार समाज और लड़के वाले के दबाव के कारण इतना बड़ा आयोजन करते हैं|

हम सब रोज़ ही राग अलापते हैं कि दहेज लेना अपराध है| दिनभर बैठकर घंटों बहस करते हैं| सरकार ने भी दहेज पर रोक लगा दी पर यह कितनी कारगार साबित हो रही है, सबको दिख रहा है| मेरे हिसाब से दहेज मामले में सिर्फ लड़के वालों को दोष देना बिल्कुल भी न्यायोचित नहीं है| दहेज के मामले में कन्यापक्ष भी बराबर का दोषी है|

एक योग्य सक्षम लड़के के लिए दस-बारह रिश्ते आते हैं, उनमें से जो लड़की सर्वगुण सम्पन्न होती है उसी के साथ रिश्ता तय किया जाता है| परन्तु जब सभी लडकियां समानरूप से सक्षम और योग्य है तो लड़का और उसके घर वाले पैसे को ही वरीयता देते हैं और ठीक यही स्थिति लड़कियों पर भी लागू होती हैं, उनके घरवाले भी अपनी बेटी के लिए अमीर लड़के को ही चुनते हैं| अक्सर ऐसा होता है कि लड़की वाले मनपसंद लड़का हथियाने के लिए मोटी से मोटी रकम दहेज के रूप में देने को तैयार रहते हैं| और कई बार तो अपनी अयोग्य लड़की के लिए अभिभावक इतनी बड़ी रकम बोल देते हैं कि लड़के वाले इनकार ही नहीं कर पाते हैं, क्योंकि मुफ्त का पैसा काटता किसे है?

वहीं दूसरी तरफ़ लड़के वाले भी यही सोचते हैं कि शर्मा जी के बेटे को कार मिल सकती है तो मेरे बेटे को क्यों नहीं| दूसरों को जब इतना दहेज मिल रहा है तो मुझे भी दहेज चाहिए और जब कोई लड़की वाले इन जैसे लोगों के घर जाते हैं तो यह लोग खुद ही दहेज की माँग करते हैं| अपने बेटों के दहेज को लेकर लड़कीवालों से मोल-भाव करते हैं| कभी कभी तो लड़केवाले अपनी और सामने वाले की औकात से ज्यादा दहेज माँग लेते हैं| खुद के रहने के लिए घर नहीं है पर दहेज में कार चाहिए| मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवाने के पैसे नहीं है उन्हें दहेज में मोटरसाइकिल चाहिए|  बहुत से घर तो ऐसे हैं जिनके घर में अच्छा-ख़ासा पैसा है फिर भी बेटों की शादी में दहेज लेकर घर में संगमरमर के पत्थर जड़वाते हैं| दहेज में आए पैसों से टूटी बालकनी बनवाते हैं| आठ-दस लाख कैश लेकर दम भरते हैं कि हमने तो उस पैसे से बहू के लिए जेवर बनवा दिया, हमने अपने पास कुछ नहीं रखा|

निर्लज्जता की हद तो तब होती है कि इतना दहेज लेने के बाद भी लोग सुशील, सर्वगुणसंपन्न और मृदुभाषी बहू चाहिए| लड़कीवाले अपने मन से दहेज दें या उनसे माँगा जाए, दोनों ही सूरतेहाल में हर पिता अपनी बेटी को सुबह मंजन वाले ब्रश से लेकर रात को सोने के लिए बेड तक देता है और इतना देता है कि कम से कम तीन-चार साल तक लड़के वालों को अपनी बहू को कुछ नहीं देना होता है, फिर भी ९०% लोग अपनी बहू और उसके मायकेवालों से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं|

मैं अपने एक मित्र की बात से पूर्णतयः सहमत हूँ, उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था कि “अगर लोगों को लगता है कि शादी एक बिज़नेस है तो फिर दोनों पार्टियों को आमने-सामने बैठकर बराबर से अपने नफ़ा-नुकसान की चर्चा करनी चाहिए| किस डील में कितना मार्जिन है, इसको कैलकुलेट करके ही डील फाइनल करनी चाहिए वरना जैसे शादियाँ होती हैं वैसे ही शादी करनी चाहिए”|

विवाह एक ऐसी संस्था है, जो प्राकृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से सर्वोत्तम व्यवस्था है| इस संस्था में प्रेम और समर्पण की आवश्यकता होती है न कि पैसों की| विवाह की आवश्यकता किसी एक व्यक्ति या एक परिवार की नहीं हैं| मैं यह नहीं कहती कि किसी से भी शादी कर ली जाए| क्योंकि शादी ताउम्र का बंधन है जिसे सोच समझकर लेना चाहिए| व्यक्ति की योग्यता और क्षमता ज़रूर देखनी चाहिए पर दौलत की गिनती नहीं करनी चाहिए| प्रेम के प्रारंभिक दौर में शारीरिक आकर्षक बहुत मायने रखता है परन्तु चेहरे के साथ साथ साथी का हृदय और मस्तिष्क भी देखना भी बहुत ज़रुरी है| प्रकृति ने सबको अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार दिया है क्योंकि यही प्रकृति के सफ़ल संचालन का अटूट और सत्य नियम है जिसका निर्वाह प्रेम के आधार पर ही किया जाना चाहिए न कि पैसों के आधार पर| और अगर हमें इस दहेजप्रथा से निज़ात चाहिए तो हमें दहेज न लेने पर नहीं दहेज न देने पर दृड़प्रतिज्ञ होना पड़ेगा| 

Saturday 3 November 2012

प्रेम या बाध्यता ?


परसों मैंने "मेरा पति मेरा देवता हैशीर्षक से एक लेख लिखा था| बहुत से लोग उस लेख से सहमत नहीं हुए और  होना भी चाहिए क्योंकि सबका अपना एक दृष्टिकोण होता है, एक अलग सोच होती है| मैं उनकी सोच से सहमत हूँ कि हर चीज़ को "प्रगतिशीलता के दृष्टिकोण" से देखकर विद्रोह या बहस नहीं करनी चाहिए| अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देने के लिए हर पल "तर्क-वितर्क-कुतर्क" का सहारा लेकर दूसरों की खुशियों में आग़ नहीं लगानी चाहिए  परन्तु "ऐसा ही होता आ रहा है"  मान कर तो चुप भी नहीं रहा जा सकता| मैंने यह तो बिल्कुल भी नहीं कहा कि हमें करवाचौथ पर्व नहीं मनाना चाहिए पर किसी बाध्यता या  डर के चलते अगर हम यह व्रत रखते हैं तो उसका क्या औचित्य है?

मैंने अपने लेख में कहीं भी करवाचौथ के व्रत को "स्त्री शोषण" से नहीं जोड़ा है और मैंने न तो परसों अपने लेख में करवाचौथ के व्रत को औचित्यहीन बताया था और न आज उसकी महत्ता कम करने की कोशिश कर रही हूँ
बेशक़ जिन पति-पत्नी में प्रेम, स्नेह और परस्पर सौहार्द है, उन्हें पूरे हर्षोल्लास के साथ इस पर्व का आनंद लेना चाहिए क्योंकि  यह पर्व पति-पत्नी के परस्पर प्रेम, स्नेह और समझ पर निर्भर करता है|
परन्तु जब पति-पत्नी में प्रेम की तो छोड़ो परस्पर सम्मान ही नहीं है तो किस बात का करवाचौथ और उसकी पूजा? जब हमारे दिल में अपनी शादी को लेकर कोई सम्मान ही नहीं, हम अपनी शादी से खुश नहीं हैं, साथी के प्रति स्नेह और ज़वाबदेही ही नहीं है तो क्यों करना यह आडम्बरमेरे हिसाब से कोई भी व्रत या त्यौहार दुनियाँ को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपने लिए होते हैं, अपनी खुशी के लिए होते हैं|

आज मैं कुछ जीवंत उदाहरण देती हूँ जो कल मैंने देखे और चाह कर भी उनका विरोध नहीं कर पाई क्योंकि जैसे ही मैंने कुछ बोलना चाहा, मुझे यह कह कर चुप करा दिया गया| सब एक स्वर में बोले तुमको इसलिए नहीं पढाया गया है कि तुम हमें ही सही और गलत समझाओ  |

१- पहला उदाहरण मैं अपनी मामी जी का देना चाहूंगी| मेरी बड़ी मामी हृदयरोगी हैं, उनका एक बार ऑपरेशन भी हो चुका है| अर्धशतक से भी ज़्यादा उन्होंने करवाचौथ का निर्जला व्रत रखा है पर पिछले कुछ सालों में वह दवाइयों पर बहुत हद तक निर्भर करने लगी हैं और उनकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है| इसलिए उन्होंने सुबह चाय पीकर अपनी दवाइयां खा ली और  मेरी दूसरी मामी को डायबटीज़ है, उन्होंने भी चाय पीकर अपनी दवाइयां खा ली फिर दोनों मामी पूरा दिन बिना अन्न-जल के रही और रात को पूजा करने बाद जब वो मेरी नानी अम्मा के पैर छूकर आशीर्वाद लेने आईं तो मेरी नानी ने उनसे पूछा कि दवा खाई थी, चाय पी थी? और उनके हाँ करते ही नानी ने उनको सुना दिया कि "अब तो पुरानी बहुएँ खा पीकर व्रत करती हैं तो नई बहुओं से क्या उम्मीद करना"| नानी अम्मा की बातें सुनकर मैं हतप्रद थी कि नानी अम्मा को मामियों की चिंता नहीं हैं जो बीमार हैं| उन्हें यही लग रहा था उनकी बहुओं ने उनके बेटों के लिए आधा-अधूरा व्रत रखा है | उनको लगा कि बहुओं को अपने पतियों की उम्र की चिंता नहीं बल्कि अपना स्वास्थ्य देख रहीं हैं|
मेरा मानना है कि पतियों को अपनी पत्नियों के लिए करवाचौथ का व्रत करने की कोई ज़रूरत नहीं हैं पर जब सास-ससुर ताने मारते हैं तब कम से कम पतियों को अपने माता-पिता को चुप करा देना चाहिए कि मेरी पत्नी ने दवा अपने लिए नहीं हमारे लिए ही खायी है| अगर कल उसको कुछ होता है तो सुबह उठकर रोटी कौन बनाएगा? बच्चों की देखभाल कौन करेगा? आपके पैरों में तेल कौन लगायेगा?

२- मेरे दूर के रिश्ते में एक भाभी हैं जो शादी से पहले किसी और लड़के से प्यार करती थी पर घरवालों ने जबरदस्ती उनकी शादी मेरे भाई से करवा दी| आज उनकी शादी को ११ साल हो गए हैं पर उन्हें भईया से रत्ती भर न तो प्रेम है और न वो उनका सम्मान करती हैं| यह बात सबको पता है फिर भी वो पिछले ११ सालों से करवाचौथ का व्रत करती हैं और भईया के हाथों से पानी पीकर अपना व्रत तोड़ती हैंउनको एक ९ साल का बच्चा भी है पर आज भी वो अपने प्रेमी को नहीं भूली| आज भी उसके लिए रोती हैं|

३- तीसरा उदाहरण मेरे घर के पड़ोस में एक दीदी रहती हैं| उनकी शादी को अभी सिर्फ ३ ही साल हुए हैं पर उनके और उनके पति के बीच में ज़रा सी भी नहीं पटती| तीन सालों में तीन सौ बार लड़ाई हो चुकी है, दो बार पुलिस-कचहरी हो चुकी है| २० दिन पहले दीदी-जीजा में बहुत बुरी तरह से लड़ाई हुई थी, लग रहा था कोई न कोई तो आज मर ही जायेगा| उस दिन से लेकर आज तक दोनों की बात नहीं हो रही है, दीदी अपने मायके में हैं| और उन्होंने भी कल करवाचौथ का व्रत रखा था पर जीजा जी न तो खुद आए और न फ़ोन ही किया|

४- और अब आख़िरी उदाहरण, मेरे घर काम करने वाली महरी (बाई) का है, जो पूरे महीने सबके घरों में बर्तन माँजकर कुछ कमाती हैं और पहली तारीख को सबसे रूपये लेकर अपने घर गई थी कि करवाचौथ को अपने लिए कुछ कपड़े और बच्चों से लिए मिठाई खरीद लेगी पर उसके घर पहुँचते ही उसके शराबी निक्कमे पति  ने उसे मार-पीट की और सब पैसे छीनकर शराब पी गया पर फिर भी उसने कल करवाचौथ का व्रत रखा|
जब मैंने अपनी महरी से पूछा कि तुमने व्रत क्यों रखा है तुम्हें तो तुम्हारे पति ने कल ही मारा पीटा है| तुम्हारे हाथ और आँख में कितनी चोट आई है तो वो बोली "बीबी जी पति तो पति होता है क्या करें व्रत न करें तो? अगर कल हमारे पति को कुछ हो जायगा तो सब मुझे ससुराल से निकाल देगें, मायके वाले किसके अपने होते  हैं और बीबी जी अगर व्रत नहीं करेगें तो पाप चढ़ेगा, जीते जी तो नरक भोग रहे हैं, मरने के बाद तो कम से कम चैन से रहेगें " 

इन चारों उदाहरणों को देखकर मुझे समझ नहीं आ रहा कि मेरी "प्रगतिशील"   सोच कहाँ और कितनी गलत है? कि हमें करवाचौथ का त्यौहार तभी मानना चाहिए जब पति-पत्नी सच में एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव रखते हों| उनमें प्रेम समाज को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपने लिए हो| जब हम अपने पति की इज्ज़त ही नहीं करतीं हैं तो सास-ननद, जेठानी को दिखाने के लिए करवाचौथ क्यों मनाना? रोज़ अपनी पत्नी को पीट दो और करवाचौथ को देवता बन कर अपनी पूजा करा लो यह कहाँ का न्याय है? हम अपने शरीर और स्वास्थ्य से परेशान हैं पर करवाचौथ की पूजा व्रत तो करना ही है, इस प्रकार की हठधर्मिता का क्या मतलब?
जब हम अपने पति को अपना पति ही नहीं मानतीं हैं तो उसे परमेश्वर बना कर उसकी पूजा क्यों करना? क्या सिर्फ दुनियाँ को दिखाना है कि हमने जबर्दस्ती वाले पति के लिए करवाचौथ की व्रत रखा है जबकि हमारे दिल में कोई और है !!! आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी हम डरते हैं कि हमारे व्रत न रखने से हमारे पति को कुछ हो जाएगा| हम ने अगर पूजा नहीं की तो दुनियाँ क्या कहेगी? हम पर पाप चढ़ेगा, हम नर्क में जलाए जाएगें|

सच तो यह है कि हम विद्रोह करना चाहते हैं, नहीं निभाना चाहते हैं बेमतलब के रिश्ते पर हमारे ऊपर पारिवारिक और  सामाजिक दबाव इतना ज़्यादा होता है कि हम विरोध तो दूर की बात है, हम बोल तक नहीं पाते कि हम क्या चाहते हैं?
मेरी बीवी किसी और से प्रेम करती है, यह जानते हुए भी बहुत से आदमी चुप है, क्योंकि वो समाज और परिवार के चलते अलग नहीं हो सकते| कई औरतें रोज़ पति की मार सहती हैं फिर भी चुप हैं क्योंकि पति-पत्नी का सम्बन्ध सात जन्मों का है जिसे क़ानून तो क्या ईश्वर भी नहीं तोड़ सकता है|

मुझे यह भी पता है कि कल मुझे भी शतप्रतिशत किसी के लिए करवाचौथ का व्रत करना होगा और  मैं यही चाहूँगी कि  मैं जिस किसी के लिए भी यह व्रत करूँ वह देवता न पर देवता से कमतर भी न हो| मुझे झुककर पैर छूने पर ज़रा-सी भी आपत्ति नहीं है पर कोई मुझ पर हाथ उठाएँ, यह मैं बर्दाश्त भी नहीं कर सकती| जितनी निष्ठा के साथ मैं समर्पण और प्रेम करूं, वह भी उतनी ही निष्ठा के साथ मेरा सम्मान करे|
अगर ऐसा नहीं होता है तो सच मानिएगा कि वहाँ मेरी सिर्फ बाध्यता होगी करवाचौथ का व्रत करके स्वयं को और उसको छलने की|

इस तरह के रिश्तें निभाने से बेहतर है कि हम इन रिश्तों से बाहर आ जाएं पर यह भारत है मेरी जान !!! यहाँ रिश्तों में प्रेम से ज़्यादा बाध्यता होती है| रिश्ता कोई भी हो वह साँसों की अंतिम डोर तक नहीं टूटता और हम अपनी बाध्यता को प्रेम का चोला पहना कर विवश रहते हैं हर रिश्ता निभाने के लिए|

Thursday 1 November 2012

मेरा पति मेरा देवता है


कल करवाचौथ पर्व है, जिसको लगभग प्रत्येक हिन्दू महिला बड़ी हर्षोल्लास के साथ मनाती है| निर्जला व्रत करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करती है और करवाचौथ माता से जन्म-जन्मांतर तक पति का साथ मांगती है| करवाचौथ का व्रत मुख्यत: पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम और स्नेह का प्रतीक है| नवविवाहित वधु हो या प्रौढ़ महिला, सब समान रूप से इस पर्व को मनाती हैं| आज करवाचौथ का रूप पारम्परिक पर्व से बहुत बदल गया है| अनेक पर्वों की तरह इस पर्व पर भी हिन्दी फिल्मों का असर बखूबी देखा जा सकता है| बाज़ारों की रौनक तो करवाचौथ के दस दिन पहले से ही बढ़ जाती है और “ब्यूटीपार्लरों” की भीड़ देखते ही बनती है| आज कुछ प्रगतिवादी आधुनिक पति भी अपनी पत्नी के लिए करवाचौथ का व्रत रखने लगे हैं| अपनी पत्नियों के लिए महँगे महँगे उपहार लाते है|


यह सब बातें तो बिल्कुल सीधी और मीठी थी पर करवाचौथ के साथ कुछेक बातें ऐसी भी हैं, जिन्हें अक्सर समाज और परिवार के लोग नकार देते हैं और मन में उठ रहे सवालों के ज़वाब में हमें रीति-रिवाज और परम्परा की दुहाई देकर चुप करा दिया जाता है|

करवाचौथ का व्रत मुख्यतः पति की लम्बी उम्र और सात जन्मों का साथ पाने के लिए किया जाता है पर यह रीति उन पत्नियों के लिए तो सही है जिनके पति गुणवान, परिश्रमी और रक्षक है| परन्तु जिन औरतों के पति स्वयं अपनी पत्नी को मारता-पीटता है, शराबी है और परस्त्रीगामी है तो वो औरतें क्यों करवाचौथ का व्रत रखती हैं? हर रोज़ अपनी पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित करना, छोटी छोटी बातों में ताना मारना, सबके सामने नीचा दिखाना, ऐसे पति की लंबी उम्र की कामना करना कहाँ तक सही है? आतंकवादियों, डाकूओं और चोरों की पत्नियों के द्वारा करवाचौथ का व्रत करना कहाँ तक न्यायोचित है? बेटा न होने पर अपनी पत्नी को छोड़ कर दूसरी शादी करने वाले आदमी के लिए दो-दो औरतें करवाचौथ का व्रत करती हैं, क्या उन्हें अगले सातों जन्म ऐसा ही गिरा हुआ पति चाहिए जो बेटा न होने पर उन्हें छोड़ कर दूसरी औरत के साथ घर बसा ले? पति एक पत्नी के जीते जी दूसरी औरत से शादी कर ले पर औरत उसी नालायक पति को पाने के लिए व्रत करती रहे|गरीब औरतें दूसरों के घर बर्तन मांज कर चार पैसे इकट्ठे करती हैं और पति उनसे पैसे छीन कर दारू पी जाता है, ऐसे पति का साथ सात जन्मों तक
माँगना मूर्खता ही है|
और सबसे अजीब बात तो यह लगती है कि जब पति मर जाता है तब करवाचौथ की कोई कीमत नहीं रह जाती है| माना कि करवाचौथ का व्रत  करने से आपके पति की उम्र नहीं बढी पर यह व्रत तो पति का साथ सात जन्मों तक पाने के लिए भी तो है फिर क्यों पति के मरने पर यह व्रत मर जाता है? क्या जब तक पति जिंदा था तब तक ही देवता था या सिर्फ उसको दिखाने के लिए व्रत रखा जा रहा था| 

हमारे समाज में पति नकारा, निकम्मा या चाहें जैसा भी हो उसे देवता का दर्जा प्राप्त है| वह कुछ भी करें पत्नी को उसका अनुसरण करना चाहिए| पति चाहें कितना भी गलत क्यों न हो, उसका विरोध न करके उसके साथ देना चाहिए| यह सब बातें हम औरतों को बचपन से सिखाई जाती हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि "पति परमेश्वर" है यह बात कोई आदमी नहीं औरतें ही बताती हैं, उन औरतों में बहुत सी औरतें स्वयं पति की प्रतारणा से पीड़ित होती हैं| फिर भी पति को परमेश्वर का दर्जा दिए बैठी हैं|

मुझे कोई आपत्ति नहीं है सभी औरतों के द्वारा अपने अपने पति को परमेश्वर मानने में, बशर्ते पति में परमेश्वर वाले सभी गुण मौज़ूद हों| परमेश्वर कभी अन्याय नहीं करता, कभी आग में जलाता नहीं हैं| परमेश्वर रक्षक है, भक्षक नहीं अगर ऐसा गुण किसी औरत के पति में है तो वह शौक से अपने पति को मंदिर में बैठा कर पूजे| 




Friday 28 September 2012

पाकिस्तान फिर सुर्ख़ियों में...!

लगता है सुर्ख़ियों में रहना पाकिस्तान की पुरानी बेशुमार आदतों में से एक पसंदीदा आदत बन गई है| अक्सर पाकिस्तान भारत में आतंकी घुसपैठ और क्रिकेट खेल जगत में सट्टेबाज़ी के लिए सुर्ख़ियों में छाया रहता है और कभी अपने शीर्षस्थ नेताओं के बड़बोलेपन तथा "सर कलम" करने जैसे फ़तवे के लिए तो कभी तख़्ता पलट कर सत्ता में आने और पूर्व मंत्रियों पर महाअभियोग लगा कर देश से निकालने जैसे कामों के लिए पाकिस्तान हमेशा ही सुर्ख़ियाँ बटोर ही लेता है| कभी अमेरिका पाकिस्तान को बिना बताए उसके ही क्षेत्र में छुपे लादेन को ढेर करके उसे चर्चा में ला देता है तो कभी आम नागरिकों की दयनीय स्थिति और उनके मौलिक अधिकारों का हनन, पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन जाता है|
यूँ कहें जहाँ पाकिस्तान वहाँ सूर्खियां या फिर जहाँ सूर्खियाँ वहाँ पाकिस्तान! मतलब पाकिस्तान और सुर्ख़ियों का साथ चोली-दामन जैसा हो गया है|

पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान फिर से सुर्ख़ियों में हैं पर इस बार सुर्ख़ियों की वज़ह कोई  कुख़्यात मंसूबा  नहीं बल्कि "प्रेम" है| अरे हाँ... सही पढ़ा है आपने; मैंने प्रेम ही लिखा है और प्रेम भी ऐसा वैसा साधारण सा नहीं है, जिस पर कोई भी दो टके का मौलवी या पंचायत मुँह उठाकर सर कलम करने का फतवा ज़ारी कर दे| यह प्रेम जन्मा है राष्ट्रपति ज़रदारी के बेटे बिलावल और विदेश मंत्री हिना रब्बानी के बीच| बिलावल और हिना दोनों ही खानदानी राईस और रसूखदार हैं और दोनों का देश की राजनीति में अच्छा ख़ासा रूतबा और दबदबा है|
यह रिश्ता किसी को मंजूर नहीं है खासकर राष्ट्रपति ज़रदारी को तो बिल्कुल भी नहीं| वह नहीं चाहते उनका २४ वर्षीय बेटा ३५ वर्षीय हिना (दो बच्चों की माँ) से शादी करे| जहाँ एक ओर हिना के पति फिरोज़ हिना-बिलावल की प्रेम-कहानी को मात्र एक अफ़वाह बता रहे हैं वही दूसरी ओर राष्ट्रपति ज़रदारी भी हिना पर राजनीतिक और गैर राजनीतिक दबाव बना रहे हैंअब तो इस प्रेमी-जोड़े पर मीडिया भी गिद्द की तरह नज़रे गढ़ाए बैठी है और खोद खोद कर खबरें निकाल रही है| जिससे दोनों परिवारों की पेशानी पर बल पड़ने लाज़मी हैं

इन दोनों का प्रेम पाकिस्तान के लिए सिरदर्दी का सबब बन सकता है| इनका प्रेम समाज और राजनीति में भारी उठ-पटक भी करने में सक्षम नज़र आ रहा है| पाकिस्तान को अभी से एक भारी बदलाव के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिएपरन्तु इस प्रेम-प्रसंग को लेकर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता और साथ ही यह प्रेम-प्रसंग कुछ अंदेशाओं को जन्म भी दे रहा है| यह प्रेम-कहानी बेनाज़ीर-ज़रदारी के प्रेम के जैसी लग रहे है| जैसे बेनाज़ीर, ज़रदारी के लिए राजनीतिक महकमों में घुसने का "बोर्डिंग पास" साबित हुई थी, ठीक वैसे ही बिलावल, हिना के लिए राष्ट्रपति की गद्दी तक पहुँचने का सिर्फ ज़रिया न बन जाए|

जैसा कि दीगर है हिना एक अति महात्वाकांक्षी महिला हैं, जो राजनीति में अपना एक ऊँचा कद बनाने की जुगत में हैं और आहिस्ता आहिस्ता वो अपने मकसद में कामयाब भी हो रही हैं और इस समय हिना का नाम बिलावल के साथ जुड़ना, हिना के लिए ही पतन का कारण बन सकता है पर अगर हिना की नज़र राष्ट्रपति की गद्दी पर है तो यह रिश्ता उन्हें वहाँ तक पहुँचने में काफ़ी मददगार साबित हो सकता है| वहीं अगर बिलावल भी सिर्फ हिना की ज़िस्मानी ख़ूबसूरती पर मर मिटे हैं तो उन्हें इसका खामियाज़ा राजनीतिक और निज़ी तौर पर भुगतना पड़ सकता है
यदि दोनों का यह प्रेम सतही और ज़िस्मों की हदों पर महसूस किया जा रहा है या किसी राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है तो इसका हश्र चाँद मुहम्मद और फ़िज़ा जैसा ही होगा|
परन्तु यदि यह प्रेम सच्चा है और सभी सामजिक वर्जनाओं को तोड़कर अपने मुकाम तक पहुँचता है तो सच में पाकिस्तान के काले इतिहास में यह घटना सदियों तक चमकती रहेगी|

हिना का अभी अभी बयान आया है कि उनके और बिलावल के बीच कुछ नहीं हैं| हिना के इस बयान पर किसी का दबाव साफ़ साफ़ नज़र आ रहा है| अब देखना होगा कि बिलावल पर इसका क्या असर होता है क्योंकि इतनी जल्दी हिना और बिलावल मानने वाले तो नही हैं|

पाकिस्तान के इतिहास में एक जबरदस्त मोड़ आने वाला है| इस सम्बन्ध पर पाकिस्तान जो भी कदम उठाएगा वह इतिहास में दर्ज होना तो तय ही है
दिलचस्प होगा यह देखना कि पाकिस्तान नया इतिहास बनाता है या बेनाज़ीर-ज़रदारी का इतिहास दोहराता है|


Tuesday 25 September 2012

शांति की खोज़ में...

भारत प्राचीन काल से ऋषि-मुनियों का देश रहा है| भारत की धरती पर अनेक महात्माओं ने जन्म लिया और अपना सम्पूर्ण जीवन, जीव कल्याण में लगा दिया| प्राचीन ऋषि मुनि ईश्वर की खोज़ में दर दर भटकते रहे परन्तु उन्हें साक्षात ईश्वर के दर्शन कभी नहीं हुए

आज आधुनिक काल में भी भारत में बाबाओं और साधुओं की कमी नहीं हुई है| शायद अगर गिनती करने बैठेगें तो प्राचीन काल से ज़्यादा साधु और बाबा मिल जाएगें क्योंकि आज कुकुरमुत्तों के जैसे हर गली-नुक्कड़ पर ढोंगी बाबाओं की दुकानें खुल गई हैं जो आम जनता को ईश्वर तक ले जाने में बड़ी सहायक सिद्ध हो रही हैं और जनता भी  ईश्वर को पाने के लिए  इन बाबाओं और साधुओं के पीछे  पागलों की तरह भाग रही है| कई लोगों ने तो ईश्वर को छोड़ कर इन बाबाओं को पूजना शुरू कर दिया है, उनका मानना है कि जो कार्य ईश्वर करने में असमर्थ है, वह सारे काम इन बाबाओं की एक कृपादृष्टि से पल भर में चुटकी बजाते हो जाते हैं

इन तथाकथित बाबाओं और साधुओं का ईश्वर से "डाइरेक्ट कनेक्शन" होता है तभी तो पाँच मिनट के ध्यान से ईश्वर अपना सारा काम-धाम छोड़ कर इनके पास दौड़ा चला आता है और इनके भक्तों की अपनी सामर्थ्य अनुसार समस्याएं दूर करने में जुट जाता है| कभी कभी तो मुझे लगता है कि ईश्वर, इन पहुंचे हुए बाबाओं और साधुओं के यहाँ बंधुआ मजदूर है, तभी तो इनकी एक आवाज पर उल्टे पाँव भागता चला आता है

प्राचीन काल के बड़े बड़े ऋषि-मुनियों ने दर दर भटक कर जंगलों में सिर्फ घास ही छीली है शायद इसीलिये  ईश्वर उनसे कभी प्रसन्न नहीं हुआ और न कभी उनको अपने दर्शन दिए| उन्होंने ईश्वर को पाने के लिए अपनी पत्नी और गृहस्थी छोड़ी पर उन्हें ईश्वर तो दूर, ईश्वर का नाखून तक न मिला और अंत में बेचारे अपनी असफ़ल यात्राओं और खोज़ का सारा चिट्ठा हमें दर्शनशास्त्र के रूप में टिका कर चले गए|

पर आज के बाबाओं और साधुओं की ईश्वर पर पकड़ बहुत अच्छी और मजबूत है, तभी तो आज के बाबाओं को ईश्वर की खोज़ में भटकना नहीं पड़ता है| वो लोग आराम से अपने एसी कमरों में बैठे रहते हैं और पाँच-छै: कमसिन बालिकाएं उनकी सेवा में हर पल तत्पर रहती हैं और बाबा  इन  कन्याओं  की  मदद  से  ईश्वर  की  खोज़ करते  रहते  हैं|

यह १८-२० साल की युवतियाँ इन वातानुकूलित आश्रमों में मानसिक शान्ति की खोज़ में आती हैंकुछ ईश्वर की प्राप्ति के लिए तो  कुछ स्वयं को जानने के लिए इन बाबाओं के सानिध्य में रहना चाहती है| यह सभी लडकियां अपने उद्देश्य में कितना सफल होती हैं यह तो वही जान सकती हैं पर बाबा के तन की शान्ति की खोज़ में यह लड़कियां अपना पूर्ण सहयोग देती हैं| बाबा और उनके शिष्य इन चेलियों के साथ रोज़ तन की शान्ति यात्रा पर निकल जाते हैं|
और जब कुछ समय पश्चात बाबा जी को तन की शान्ति के लिए दूसरी लड़की मिल जाती हैं तो यही लडकियां बाद में रोना रोती हैं "हाय हाय मेरा बलात्कार हो गयापिछले दो साल से स्वामी जी और उनके शिष्य मेरा यौन शोषण कर रहे थे और न जाने कितनी बार मेरा गर्भपात कराया गया है"

कभी कभी तो मुझे लगता है कि  लड़कियां खुद ही कमज़र्फ़ होती हैं, जो ढोंगी पाखंडियों से स्वामी जी स्वामी जी करते जा चिपकती हैइन लड़कियों से घर में बैठ कर ईश्वर की पूजा नही की जाती है पर मुहं उठा के चल देती है स्वामी जी के सानिध्य में, शांति की खोज में...
अभी दूध के दांत टूटे भी नहीं होगें पर पता नही इन १८-२० साल की लडकियों को कौन सी और कैसी शांति की खोज रहती हैं|
अरे जब चार गैर मर्दों के बीच अकेली रहोगी... तो बलात्कार नहीं होगा तो क्या होगा?
वो कहावत तो सुनी ही होगी "जब आग फूस साथ रखोगें तो जलेगें ही" 
अपने हिंदू धर्म में कहीं नहीं लिखा है कि औरतों और लड़कियों को किसी पुरूष को गुरू या स्वामी बनाने की आवश्यकता हैउनका गुरू, स्वामी, ईश्वर सब कुछ उनका पति ही होता है पर कौन समझाएं इन करम-जलियों को!!!
सबसे बड़ी रोचक बात तो यह है कि आज के इस तकनीकी युग में कैसे कोई इन आश्रमों में बैठ कर दर्शनशास्त्र पढ़ सकता है? १८-२० साल की उम्र में लोग सबसे ज़्यादा संसारिक होते हैं, इसी उम्र में लोग प्रेम-प्रसंगो में लिप्त होते है| अपना और परिवार का नाम रोशन करने की चाह होती है| इस उम्र में तो मानसिक शान्ति की किसी को कोई ज़रूरत ही नहीं होती हैतो फिर कैसे ये लडकियां इन आश्रमों में पहुँच जाती हैं

मैं यह नहीं कहती कि किसी पराये मर्द से बात मत करो या किसी से हँसों बोलो नहीं... पर चिपकने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि अपने समाज में गलती चाहें स्त्री की हो या पुरुष की, उसे हमेशा स्त्रियों के सिर ही मढ़ा जाता है| स्त्रियों की शारीरिक बनावट ही ऐसी है कि लाख चाहने के बावज़ूद भी कोई गलती छुप नहीं सकती

इन ढोंगी पाखंडियों की सच्चाई से सभी वाकिफ़ हैं फिर भी इनकी दुकानें चलती हैं क्योंकि हम सब देख कर अंधे बने रहना चाहते हैं| किसी बाबा के आश्रम से नन्हें-मुन्हें बच्चों के शव निकलते हैं तो कोई देश-विदेश में बड़े पैमाने पर सेक्स रैकेट चला रहा है| कोई नाबालिग लड़कियों के रेप केस में १०-१२ साल की सज़ा काट चुका हैं तो कोई धर्म के नाम पर पैसा बटोर कर होटल और बार चला रहा है और तो और कुछ मंदिर की गद्दी पाने के लिए अपने ही गुरु/मित्र की हत्या करवा देते हैं| फिर भी हम कुछ नहीं कहते क्योंकि हमारे लिए धर्म से बढ़ कर कुछ है| हम सबको जीते जी और मरने के बाद स्वर्ग ही चाहिए, सिर्फ इसका फ़ायदा ये पाखंडी उठाते हैं|

इन तथाकथित बाबाओं का अगर भूतकाल देखेगें तो कोई दर्जी था तो कोई सड़क के किनारे समोसे तालता था, किसी के ऊपर बैंकों का ब्याज़ बाकी था तो कोई अपने दोस्त की हत्या की सज़ा से बचने के लिए बाबा बन बैठा है| जिसको हिन्दी ठीक से बोलनी नहीं आती वो एक ही रात में अचानक से भारतीय दर्शनशास्त्र का महान विद्वान बन जाता है१८-२० साल की लड़कियों के साथ रास रचाने वाले ५० साल के पहुँचे हुए बाबा आम जनता से कहते हैं भोग-विलास छोड़ दो| लक्ष्मी का मोह छोड़ दो, पैसा तो हाथ का मैल है, आता है जाता है पर जब कोई आयोजक इन्हें इनकी फीस से १ रूपये कम देता है तो वहाँ कथा कहने नहीं जाते हैं| खुद तो चवन्नी चवन्नी के लिए मरे जाते है और जनता तो मोह त्याग करने को कहते हैं|

ये पाखंडी और कुछ नहीं हैं सिर्फ हमारे धर्मान्ध होने का फायदा उठाते हैं और हम इतने मुर्ख हैं कि सब जानते हुए भी इनका ही साथ देते हैं|