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Saturday 3 November 2012

प्रेम या बाध्यता ?


परसों मैंने "मेरा पति मेरा देवता हैशीर्षक से एक लेख लिखा था| बहुत से लोग उस लेख से सहमत नहीं हुए और  होना भी चाहिए क्योंकि सबका अपना एक दृष्टिकोण होता है, एक अलग सोच होती है| मैं उनकी सोच से सहमत हूँ कि हर चीज़ को "प्रगतिशीलता के दृष्टिकोण" से देखकर विद्रोह या बहस नहीं करनी चाहिए| अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देने के लिए हर पल "तर्क-वितर्क-कुतर्क" का सहारा लेकर दूसरों की खुशियों में आग़ नहीं लगानी चाहिए  परन्तु "ऐसा ही होता आ रहा है"  मान कर तो चुप भी नहीं रहा जा सकता| मैंने यह तो बिल्कुल भी नहीं कहा कि हमें करवाचौथ पर्व नहीं मनाना चाहिए पर किसी बाध्यता या  डर के चलते अगर हम यह व्रत रखते हैं तो उसका क्या औचित्य है?

मैंने अपने लेख में कहीं भी करवाचौथ के व्रत को "स्त्री शोषण" से नहीं जोड़ा है और मैंने न तो परसों अपने लेख में करवाचौथ के व्रत को औचित्यहीन बताया था और न आज उसकी महत्ता कम करने की कोशिश कर रही हूँ
बेशक़ जिन पति-पत्नी में प्रेम, स्नेह और परस्पर सौहार्द है, उन्हें पूरे हर्षोल्लास के साथ इस पर्व का आनंद लेना चाहिए क्योंकि  यह पर्व पति-पत्नी के परस्पर प्रेम, स्नेह और समझ पर निर्भर करता है|
परन्तु जब पति-पत्नी में प्रेम की तो छोड़ो परस्पर सम्मान ही नहीं है तो किस बात का करवाचौथ और उसकी पूजा? जब हमारे दिल में अपनी शादी को लेकर कोई सम्मान ही नहीं, हम अपनी शादी से खुश नहीं हैं, साथी के प्रति स्नेह और ज़वाबदेही ही नहीं है तो क्यों करना यह आडम्बरमेरे हिसाब से कोई भी व्रत या त्यौहार दुनियाँ को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपने लिए होते हैं, अपनी खुशी के लिए होते हैं|

आज मैं कुछ जीवंत उदाहरण देती हूँ जो कल मैंने देखे और चाह कर भी उनका विरोध नहीं कर पाई क्योंकि जैसे ही मैंने कुछ बोलना चाहा, मुझे यह कह कर चुप करा दिया गया| सब एक स्वर में बोले तुमको इसलिए नहीं पढाया गया है कि तुम हमें ही सही और गलत समझाओ  |

१- पहला उदाहरण मैं अपनी मामी जी का देना चाहूंगी| मेरी बड़ी मामी हृदयरोगी हैं, उनका एक बार ऑपरेशन भी हो चुका है| अर्धशतक से भी ज़्यादा उन्होंने करवाचौथ का निर्जला व्रत रखा है पर पिछले कुछ सालों में वह दवाइयों पर बहुत हद तक निर्भर करने लगी हैं और उनकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है| इसलिए उन्होंने सुबह चाय पीकर अपनी दवाइयां खा ली और  मेरी दूसरी मामी को डायबटीज़ है, उन्होंने भी चाय पीकर अपनी दवाइयां खा ली फिर दोनों मामी पूरा दिन बिना अन्न-जल के रही और रात को पूजा करने बाद जब वो मेरी नानी अम्मा के पैर छूकर आशीर्वाद लेने आईं तो मेरी नानी ने उनसे पूछा कि दवा खाई थी, चाय पी थी? और उनके हाँ करते ही नानी ने उनको सुना दिया कि "अब तो पुरानी बहुएँ खा पीकर व्रत करती हैं तो नई बहुओं से क्या उम्मीद करना"| नानी अम्मा की बातें सुनकर मैं हतप्रद थी कि नानी अम्मा को मामियों की चिंता नहीं हैं जो बीमार हैं| उन्हें यही लग रहा था उनकी बहुओं ने उनके बेटों के लिए आधा-अधूरा व्रत रखा है | उनको लगा कि बहुओं को अपने पतियों की उम्र की चिंता नहीं बल्कि अपना स्वास्थ्य देख रहीं हैं|
मेरा मानना है कि पतियों को अपनी पत्नियों के लिए करवाचौथ का व्रत करने की कोई ज़रूरत नहीं हैं पर जब सास-ससुर ताने मारते हैं तब कम से कम पतियों को अपने माता-पिता को चुप करा देना चाहिए कि मेरी पत्नी ने दवा अपने लिए नहीं हमारे लिए ही खायी है| अगर कल उसको कुछ होता है तो सुबह उठकर रोटी कौन बनाएगा? बच्चों की देखभाल कौन करेगा? आपके पैरों में तेल कौन लगायेगा?

२- मेरे दूर के रिश्ते में एक भाभी हैं जो शादी से पहले किसी और लड़के से प्यार करती थी पर घरवालों ने जबरदस्ती उनकी शादी मेरे भाई से करवा दी| आज उनकी शादी को ११ साल हो गए हैं पर उन्हें भईया से रत्ती भर न तो प्रेम है और न वो उनका सम्मान करती हैं| यह बात सबको पता है फिर भी वो पिछले ११ सालों से करवाचौथ का व्रत करती हैं और भईया के हाथों से पानी पीकर अपना व्रत तोड़ती हैंउनको एक ९ साल का बच्चा भी है पर आज भी वो अपने प्रेमी को नहीं भूली| आज भी उसके लिए रोती हैं|

३- तीसरा उदाहरण मेरे घर के पड़ोस में एक दीदी रहती हैं| उनकी शादी को अभी सिर्फ ३ ही साल हुए हैं पर उनके और उनके पति के बीच में ज़रा सी भी नहीं पटती| तीन सालों में तीन सौ बार लड़ाई हो चुकी है, दो बार पुलिस-कचहरी हो चुकी है| २० दिन पहले दीदी-जीजा में बहुत बुरी तरह से लड़ाई हुई थी, लग रहा था कोई न कोई तो आज मर ही जायेगा| उस दिन से लेकर आज तक दोनों की बात नहीं हो रही है, दीदी अपने मायके में हैं| और उन्होंने भी कल करवाचौथ का व्रत रखा था पर जीजा जी न तो खुद आए और न फ़ोन ही किया|

४- और अब आख़िरी उदाहरण, मेरे घर काम करने वाली महरी (बाई) का है, जो पूरे महीने सबके घरों में बर्तन माँजकर कुछ कमाती हैं और पहली तारीख को सबसे रूपये लेकर अपने घर गई थी कि करवाचौथ को अपने लिए कुछ कपड़े और बच्चों से लिए मिठाई खरीद लेगी पर उसके घर पहुँचते ही उसके शराबी निक्कमे पति  ने उसे मार-पीट की और सब पैसे छीनकर शराब पी गया पर फिर भी उसने कल करवाचौथ का व्रत रखा|
जब मैंने अपनी महरी से पूछा कि तुमने व्रत क्यों रखा है तुम्हें तो तुम्हारे पति ने कल ही मारा पीटा है| तुम्हारे हाथ और आँख में कितनी चोट आई है तो वो बोली "बीबी जी पति तो पति होता है क्या करें व्रत न करें तो? अगर कल हमारे पति को कुछ हो जायगा तो सब मुझे ससुराल से निकाल देगें, मायके वाले किसके अपने होते  हैं और बीबी जी अगर व्रत नहीं करेगें तो पाप चढ़ेगा, जीते जी तो नरक भोग रहे हैं, मरने के बाद तो कम से कम चैन से रहेगें " 

इन चारों उदाहरणों को देखकर मुझे समझ नहीं आ रहा कि मेरी "प्रगतिशील"   सोच कहाँ और कितनी गलत है? कि हमें करवाचौथ का त्यौहार तभी मानना चाहिए जब पति-पत्नी सच में एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव रखते हों| उनमें प्रेम समाज को दिखाने के लिए नहीं बल्कि अपने लिए हो| जब हम अपने पति की इज्ज़त ही नहीं करतीं हैं तो सास-ननद, जेठानी को दिखाने के लिए करवाचौथ क्यों मनाना? रोज़ अपनी पत्नी को पीट दो और करवाचौथ को देवता बन कर अपनी पूजा करा लो यह कहाँ का न्याय है? हम अपने शरीर और स्वास्थ्य से परेशान हैं पर करवाचौथ की पूजा व्रत तो करना ही है, इस प्रकार की हठधर्मिता का क्या मतलब?
जब हम अपने पति को अपना पति ही नहीं मानतीं हैं तो उसे परमेश्वर बना कर उसकी पूजा क्यों करना? क्या सिर्फ दुनियाँ को दिखाना है कि हमने जबर्दस्ती वाले पति के लिए करवाचौथ की व्रत रखा है जबकि हमारे दिल में कोई और है !!! आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी हम डरते हैं कि हमारे व्रत न रखने से हमारे पति को कुछ हो जाएगा| हम ने अगर पूजा नहीं की तो दुनियाँ क्या कहेगी? हम पर पाप चढ़ेगा, हम नर्क में जलाए जाएगें|

सच तो यह है कि हम विद्रोह करना चाहते हैं, नहीं निभाना चाहते हैं बेमतलब के रिश्ते पर हमारे ऊपर पारिवारिक और  सामाजिक दबाव इतना ज़्यादा होता है कि हम विरोध तो दूर की बात है, हम बोल तक नहीं पाते कि हम क्या चाहते हैं?
मेरी बीवी किसी और से प्रेम करती है, यह जानते हुए भी बहुत से आदमी चुप है, क्योंकि वो समाज और परिवार के चलते अलग नहीं हो सकते| कई औरतें रोज़ पति की मार सहती हैं फिर भी चुप हैं क्योंकि पति-पत्नी का सम्बन्ध सात जन्मों का है जिसे क़ानून तो क्या ईश्वर भी नहीं तोड़ सकता है|

मुझे यह भी पता है कि कल मुझे भी शतप्रतिशत किसी के लिए करवाचौथ का व्रत करना होगा और  मैं यही चाहूँगी कि  मैं जिस किसी के लिए भी यह व्रत करूँ वह देवता न पर देवता से कमतर भी न हो| मुझे झुककर पैर छूने पर ज़रा-सी भी आपत्ति नहीं है पर कोई मुझ पर हाथ उठाएँ, यह मैं बर्दाश्त भी नहीं कर सकती| जितनी निष्ठा के साथ मैं समर्पण और प्रेम करूं, वह भी उतनी ही निष्ठा के साथ मेरा सम्मान करे|
अगर ऐसा नहीं होता है तो सच मानिएगा कि वहाँ मेरी सिर्फ बाध्यता होगी करवाचौथ का व्रत करके स्वयं को और उसको छलने की|

इस तरह के रिश्तें निभाने से बेहतर है कि हम इन रिश्तों से बाहर आ जाएं पर यह भारत है मेरी जान !!! यहाँ रिश्तों में प्रेम से ज़्यादा बाध्यता होती है| रिश्ता कोई भी हो वह साँसों की अंतिम डोर तक नहीं टूटता और हम अपनी बाध्यता को प्रेम का चोला पहना कर विवश रहते हैं हर रिश्ता निभाने के लिए|

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